Wednesday, July 6, 2022

पुष्पकासीस भस्म के उपयोग, गुणधर्म, दोष और भस्म बनाने की विधि

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" पुष्पकासीस भस्म के उपयोग और भस्म बनाने की विधि "


कासीस के प्रकार- पुष्पकासीस दो प्रकार की होती है वालुका कासीस और पुष्पकासीस । भस्म बनाने के लिए पुष्पकासीस उत्तम मानी जाती हैं ।


" पुष्पकासीस शुद्धिकरण विधि "


पुष्पकासीस दो प्रकार से शुद्ध की जाती हैं - 

पहली - भंगरा के रस में भिगोकर कासीस शुद्ध की जाती है 

दूसरी - पित्त या आर्तव में भिगोकर भी कासीस को शुद्ध किया जाता हैं।

 " पुष्पकासीस भस्म बनाने की विधि "


प्रथम विधि - क्षार में पुष्पकासीस का मारण करके सात भावना दी जाती हैं । हर भावना के बाद एक पुट देने से पुष्पकासीस भस्म बन जाती है ।

द्वितीय विधि - गंधक से भी पुष्पकासीस का मारण करके भस्म तैयार की जा सकती है ।

" पुष्पकासीस का नेत्र विकारों में उपयोग "


पुष्पकासीस भस्म उष्ण, कषाय रसात्मक, अम्ल और नेत्र विकारों में उपयोगी औषधि है । इस भस्म के कषाय रस गुणों का अधिक प्रयोग होता है । यह आँखों के विकार जैसे - अभिष्यंद पूयाभिष्यंद, नेत्रवर्ण और नेत्रकनीनीवर्ण इत्यादि विकारों में उत्तम लाभप्रद होती है । 


पुष्पकासीस भस्म और शतधौतघृत मिलाकर अच्छी तरह खरल करने से उत्कृष्ट नयनांञ्जन बन जाता हैं । इसमें जो कषायरस होता है उसका रक्तप्रसादक कार्य जल्द परिणाम देता है । नेत्र विकारों में इसी रक्तप्रसादक गुण से लाभ मिलता है । 


" पुष्पकासीस भस्म का मंदाग्नी विकार में उपयोग "


कासीसभस्म आमका संशोषण कर मंदाग्नी ( बदहज्मी ) को दूर करती है, और पाचक अग्नि को बढ़ाती है । रसायनविधि से कासीसभस्म का घी और शहद के साथ उपयोग करने से उच्चतम लाभ होता है । 


पचनेन्द्रिय में या उसके आसपास के हिस्सो में रक्तधातु विकार हुआ हो या इंद्रियों में रक्त कम पहुंच रहा हो तो इससे बदहज्मी हो सकती है । रक्त की कमी भी बदहज्मी का कारण होता है । रक्त पित्तधातु का आधार और आश्रय होता है । रक्त की कमी होने से पित्तधातु से पाचक पित्त कम मात्रा में बनता है । कासीसभस्म रक्त की कमी को दूर कर देती है । 


कासीसभस्म अग्नि को प्रज्वलित करने का काम करती है । जब अन्नरस में पाचन करने की शक्ति कम हो जाती हैं , तब कासीसभस्म पचनेन्द्रियों को उत्तेजित कर पाचकरस को पहले जैसे स्थापित करती है । 


" पुष्पकासीस भस्म का अजीर्ण विकार में उपयोग "


कासीसभस्म आम को नष्ट करती है, इसलिए आमजन्य अजीर्ण या पुराना अजीर्ण या उससे उत्पन्न होने वाले दूसरे विकारों मे कासीसभस्म से लाभ मिलता है । 


बार-बार अजीर्ण होने के कारण उत्पन्न पांडुरोग की प्रथम अवस्था में पुष्पकासीस भस्म लाभप्रद होती हैं ।


" पुष्पकासीस भस्म का बाल विकारों में उपयोग "


जवानी में ही सिर से बाल खत्म होना, कम उम्र में बालों का सफेद होना और बुढ़ापा महसूस करना इन समस्याओ का उपचार कासीसभस्म करती हैं । इन विकारों में कासीसभस्म के साथ कांतलोहभस्म, त्रिफलाचूर्ण, शहद और घी, भिन्न-भिन्न अवस्था में भिन्न-भिन्न मात्रा में प्रयोग करने से ये विकार दूर हो जाते हैं ।


" गृहणी विकार में पुष्पकासीस भस्म का उपयोग "


गृहणी विकार में जो सेन्द्रिय विषार उत्पन्न होते है । इन सेन्द्रिय विषारों में जलन के साथ पेट फूलना, वायु का निस्सरण न होना, वायु के संचय से पेट में आवाज आना इत्यादि लक्षण हो तो कासीसभस्म अधिक अच्छा काम करती हैं ।


 " फोड़े-फुंसी में पुष्पकासीस भस्म का उपयोग "


रक्त और मांस धातु जब दूषित हो जाते हैं, तो पित्त दोष बढ़ जाता है, तो पुष्पकासीस भस्म का सेवन करना चाहिए । यह एंटीबायोटिक का काम करती हैं । विशेषकर तब अच्छा काम करती जब फोड़े में जलन हो, फोड़े के किनारो पर छोटी फुंसिया जो बिलकुल लाल हो और स्राव के साथ खून निकलता हो तो बाहर लगाने की दवा के साथ कासीसभस्म सेवन करना चाहिए । 


" पुष्पकासीस भस्म के फायदे,  गुणधर्म और दोष "


कासीसभस्म का मुख्य गुण रक्त के रक्तपरमाणुओं का निर्माण करना हैं । इसके दोष वात और कफ हैं ।


" पुष्पकासीस भस्म के दुष्प्रभाव "


कासीस भस्म से कभी कभी जी मिचलाना और उल्टी की शिकायत हो सकती है ।


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Sunday, July 3, 2022

अभ्रक भस्म के फायदे, उपयोग, गुणधर्म और बनाने की सम्पूर्ण विधि

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" अभ्रक भस्म के फायदे और बनाने की सम्पूर्ण विधि "


अभ्रक के चार प्रकार होते है, जिन्हे विभिन्न नामो जैसे पीला ( पिनाक), सुर्ख ( दर्दुर ), सफेद ( नाग ) और काला ( वज्र ) अभ्रक के नाम से जाना जाता हैं ।


>> पिनाक अभ्रक - आग पर रख देने मात्र से जिसके छोटे-छोटे टुकड़े हो जाते हैं, वह पिनाक अभ्रक होती हैं । 


>> नाग अभ्रक - जिस अभ्रक को गर्म करने से सर्प के फुफ्कार जैसी आवाज आती है वह नाग अभ्रक होती है । 


>> दर्दुर अभ्रक - जिस अभ्रक में मैंड़क की आवाज निकले वह दर्दुर अभ्रक होती हैं । 


>> वज्र अभ्रक - जिस अभ्रक में आग से कोई  प्रतिक्रिया नहीं होती वह वज्र अभ्रक होती हैं ।


" अभ्रक शुद्धिकरण विधि "


अभ्रक को भस्म का रूप देने से पहले उसको शुद्ध करना होता हैं । वज्र अभ्रक को तपाकर कांजी, गोमूत्र, त्रिफला काढ़ा, गाय का दूध या बेर की छाल का काढ़ा (इनमें से किसी एक में) सात बार डुबाकर अभ्रक को शुद्ध किया जाता हैं । 


अभ्रक को शुद्ध करने के बाद सबसे पहले उसका चूर्ण बनाया जाता हैं । शुद्ध अभ्रक का चूर्ण बनाने के लिए सर्वप्रथम धान्य अभ्रक बनाते हैं । 


" धान्य अभ्रक बनाने की विधि "


शुद्ध किए वज्र अभ्रक को पहले खरल में रखकर बिलकुल छोटे टुकड़े किए जाते हैं । और इसमें अभ्रक का चौथा हिस्सा धान मिलाकर दोनो को कम्बल में अच्छी तरह बांधकर पानी में तीन दिन तक भिगोकर रखा जाता हैं । जब अच्छी तरह भीग जाए तब उस कम्बल को पानी से निकालकर, थाली जैसे बर्तन में पानी और त्रिफला का काढ़ा डाल-डालकर जोरजोर से घिसा जाता हैं । घिसने से अभ्रक पानी के साथ निकल जाता हैं । इसी प्रक्रिया को तबतक दोहराए जबतक अभ्रक पूरी तरह न निकाल जाए । इसके बाद इस पानी को इकठ्ठा करके रख दें और ऊपर-ऊपर का पानी फेंक दे । और नीचे बचे अभ्रक को सूखने के बाद ऊपर दी विधि से शुद्ध कर ले ।


" अभ्रकभस्म के कार्य,  फायदे और उपयोग "


अभ्रकभस्म का मुख्य कार्य सूक्ष्म अणुओं का निर्माण करना हैं, यह शरीर की संचालक इंद्रियों में पहुंचकर उनके घटकों की वृद्धी के लिए सूक्ष्म अणु पहुंचाते हैं । जिन विकारों में शरीर के घटक और सूक्ष्म अणु धीरे धीरे कम हो जाते हैं, तो यह इंद्रियों का सूखना होता हैं । इन सूक्ष्म अणुओं की काम करने की क्षमता प्रतिदिन कम होती जाती है । इस प्रकार के विकारों में अभ्रक भस्म सबसे अच्छा इलाज हैं । 


" मस्तिष्क विकारो में फायदेमंद "


रोगी के मस्तिष्क की शक्ति क्षीण होना, सिर में हलकापन, बारबार चक्कर आना, विचार करने पर एक विचार में दूसरे विचार का आना, खड़े रहने पर चक्कर आकर गिरने जैसी स्थिति, याददाश्त कम होना, कमजोरी में दुबलापन, चिंताग्रस्त, रोगी अप्रसन्न होता हैं । अभ्रक भस्म के रोगी को बारबार थोडा-थोडा और सिर पर अधिक पसीना आता है । इस स्थिति में अभ्रक भस्म कारगर और लाभप्रद होती हैं ।


" लकवा विकार में लाभप्रद "


लकवे की दो अवस्थाए होती हैं, प्रथम अवस्था की तीव्रता शांत होने के बाद दूसरी अवस्था में रक्तवाहिनीयो की शक्ति पुनः प्राप्त करने के लिए अभ्रक भस्म का प्रयोग किया जाता हैं । इस अवस्था में अभ्रक भस्म देने से रक्तवाहिनीओं के घटक प्रबल हो जाते हैं । राजयक्ष्मा या कोई दूसरा विकार हो जाने की चिंता करता हो तो उस आदमी को अभ्रक भस्म से जरूर फायदा होता हैं । इसी प्रकार जिस आदमी को आनंद के समय भी खुशी नहीं रहती हो और  छोटी-छोटी बातों के ख्याल से दुःखी रहता हैं, तो ऐसा आदमी अभ्रक भस्म से ठीक हो जाता हैं । 


" बच्चो में बुद्धिमतता की क्षीणता "


बच्चों में कभी कभी उनकी उम्र के साथ-साथ उनकी बुद्धिमतता का विकास नही होता हैं । कई बच्चे हंसते-खेलते नही और कोई चेष्टा नहीं करते, केवल रोते रहते हैं । इस अवस्था में अभ्रक भस्म से फायदा होता है । लेकिन इस अवस्था का मूल कारण उपदंश का विकार होना चाहिए ।


मस्तिष्क के कुछ भागो का पूर्ण विकास न होने से छोटे बच्चों में विकार उत्पन्न हो जाते हैं । वे अपनी गर्दन नही उठा सकते, हाथ पैरों पर नियंत्रण नहीं रहता, शब्दोच्चार अटकते है । इसका कारण यह है कि मस्तिष्क से जो संदेश आते है, उनमें पूर्ण शक्ति नहीं होती है । इस विकार में भी अभ्रक भस्म से फायदा होता है ।


कुछ बच्चों की सिर की हड्डियां कमजोर होती है, कपाल की हड्डी बढ़ जाने से सिर का आकार भी बढ़ जाता है । कपाल पर बार-बार पसीना आता हैं । मुहं में पानी आए पर, छाले न होते हो, खांसी के साथ अधिक बल्गम आना, छाती की हड्डियां नरम होने से जोर से खांसने पर बीच का भाग आगे निकल आना, बार-बार उल्टी होना,  इन लक्षणों में भी अभ्रक भस्म देने से फायदा होता है ।


" लडकियों को जवानी में ' हारिद्रक ' नामक विकार "


खून में लाल रक्त कण कम हो जाते हैं,  किसी भी प्रकार की बिमारी न होने पर भी लडकी का मुंह फीका रहता हैं, बदन सूख जाता है, कभी बुखार कभी वमन हो जाती है । हाथ पैरों के नाखून पीले पड़ जाते हैं, उनका आकार भी बदलता जाता है और धीरे धीरे हरे रंग के हो जाते है । यह सब विकार खून में लाल रक्त कणो के कम हो जाने से होता हैं । अभ्रक भस्म खून में लाल रक्त कणो का निर्माण करने का कार्य करती है । 


हारिद्रक विकार का मूल कारण मानसिक हो तो उसमें अभ्रक भस्म ज्यादा फायदा करती हैं। कभी कभी इसके मानसिक व शारीरिक कारण का पता नही चल पाता, तो इस अवस्था में अभ्रक भस्म के साथ लोहभस्म देने से उत्तम लाभ मिलता हैं । 


" पंडुरोग व बवासीर में उपयोग "


पंडुरोग के मानसिक कारण हो या बातवाहिनी बिगडने से लाल रक्त कणो की कमी, तो अभ्रक भस्म से जरूर फायदा होता हैं ।


बवासीर में ज्यादा खून आने से पंडुरोग उत्पन्न होता है, इसका भी मूल कारण मानसिक या बातवाहिनी बिगडना होता हैं, इस अवस्था में अभ्रक भस्म लाभप्रद होती हैं ।


" आंतो के विकार में लाभप्रद "


आंतो की अशक्तता से गुदा मार्ग पर दबाव पड़ने से खून आने लगता है और जिससे कमजोरी  होने लगती है, इस विकार में अभ्रक भस्म का उपयोग लाभप्रद होता है । 


इस अवस्था के दो प्रकार होते है, एक यकृत का बिगाडना, दूसरा आंतों की अशक्ततता, दूसरे प्रकार में अभ्रक भस्म अच्छी असरकारक होती है । 


" फेफड़ो के विकार में उपयोग "


फेफड़ो की अशक्तता से कफ विकृति होती है, जिससे तरह तरह के तीव्र और चिरकारी विकार उत्पन्न होते है । इन विकारों मे अभ्रक भस्म का प्रयोग होता है । फेफडो के विकारों में अभ्रक भस्म उत्तम दवा हैं । 


" हृदय विकारो में उपयोग "


अभ्रक भस्म हृदय को भी बल प्रदान करती है । जब हृदय की अशक्तता हो और कोई इंद्रियजन्य विकार न हो तो अभ्रक भस्म से जरूर फायदा होता हैं। इसी कारण हृदय या फेफडों के पुराने विकारों में अभ्रक भस्म देते हैं । अभ्रकभस्म धीरे धीरे काम करती है । कई दिनों से हुए बुखार में हृदय और फेफडों की अशक्तता के लक्षण पाए जाते हैं । इस विकार में जब तक बुखार रहेगा, तबतक हृदय और फेफडों की शक्ति बनी रहेगी ।


अभ्रक भस्म हृदय को उत्तेजित करती है और हृदय के स्नायु अणुओ को ताकत देती है । जहां जहां पर ताकत कम हो गयी हो वहां अभ्रक भस्म दी जाती हैं । हृदय के विकार से जब सूजन पैदा होती है तब भी अभ्रक भस्म फायदा करती है ।


" क्षयविकार में अभ्रक भस्म का उपयोग "


परजीवी जनित क्षयविकार को छोड़कर अन्य सभी क्षयविकार जैसे- अनुलोम और प्रतिलोम क्षय में अभ्रक भस्म कारगर दवा है । जन्तुजन्य क्षयविकार में भी जब ज्वर कम या ज्वर की आशंका रहती है, तब कभी कभी अभ्रक भस्म फायदा कर सकती है । 


निर्जन्तुक क्षयविकार में अभ्रक भस्म एक खात्रीका इलाज है । इस क्षयविकार का मुख्य लक्षण यह है कि किसी प्रकार का कारण नजर न आने पर भी शरीर के अवयव घटते जाते हैं, और शरीर दुबला-पतला होता जाता है । इस प्रकार के क्षय का असर कई दिनों तक रहता है और रोगी को इसका पता ही नही चलता, इसमे भी कभी कभी हल्का ज्वर आता है । निर्जन्तुक क्षयविकार की कौई भी अवस्था हो, अभ्रक भस्म के प्रयोग से जरूर फायदा होता है, यह लाल रक्त कणो की मात्रा बढ़ा देती है।


" पुराने कफ विकार में उपयोग "


पुराने से पुराने कफ विकारों में भी अभ्रक भस्म उत्तम औषधि है । पुरानी खांसी व दमा के कारण श्वास नलिका में घाव पड़ जाते है । इस विकार में रोगी निःशक्त हो जाता हैं। अभ्रक भस्म को शहद के साथ देने से अच्छा परिणाम मिलते हैं ।


कफात्मक श्वासविकार में दमे के साथ खांसी भी होती है और खांसते समय गाढ़ा सफेद कफ निकलता है । इसमें अधिक मात्रा में ठंडा पसीना आता है । इस हालत में अभ्रक भस्म देने से लाभ होता हैं ।


वृद्ध, अशक्त या दुबले पतले व्यक्ति को बरसात व सर्दियों के शुरुआत में थंडी हवा से दमा होता हैं, इसमें चुपचाप एक जगह बैठे रहने से आराम मिलता हैं,  इस अवस्था में भी अभ्रक भस्म से फायदा होता हैं । 


कभी कभी अशक्त और पंडुरोगी स्त्रियों को एकाएक दमा होता है, बहुत घबराहट होती है और श्वास लेने में तकलीफ होती हैं । ऐसा श्वास नली के संकुचित हो जाने से होता है । श्वासवाहिनियों के संकुचित होने के कारण जितनी प्राणवायु की जरूरत शरीर को होती है, उतनी प्राणवायु शरीर को नही मिल पाती । इस कारण शरीर में जलन पैदा हो जाती है, यह स्थिति प्राणवायु के कम होने से होती है । श्वासवाहिनियों के संकुचन को कम करने और बिगडे हुए पित्त का शमन करने का काम अभ्रक भस्म करती है । इस विकार में अभ्रक भस्म के साथ चंद्रप्रभा, रुद्रवंती और आरोग्यवर्धिनी दवाइयां देने से अच्छे परिणाम मिलते हैं ।


जिन रोगियों को बार बार खांसी आती हैं, कुछ समय बंद रहती और फिर आ जाती हैं । जिन्हे विशिष्ट पदार्थ के सेवन से खांसी आती है, उन रोगियों के शरीर में ऐसी आदतें पड़ जाती है, कि उनकी प्रकृति उन्ही चीजों को नहीं चाहती है । इस आदत को हटाने का कार्य अभ्रक भस्म करती है । इस विकार में अभ्रक भस्म का उपयोग केवल शहद के साथ करना चाहिए और इसका उपयोग रोज न करके कुछ दिन छोड-छोड़कर करे । 


थोडे से चलने मात्र से श्वास भरना, रोगी पहाड़ पर नहीं चढ़ पाना, दम भरना, नाडी कमजोर पड़ना इन लक्षणों में अभ्रक भस्म देने से फायदा होता है। रक्तवाहिनियों का कवच पतला होता है। और जिस भाग में पतला होता हैं, वहां कफ के संचय के कारण रक्तवाहिनियाॅ फूल जाती है । इस विकार में और इसके आगे की रक्तपित्त की अवस्था मे भी अभ्रक भस्म एक मात्र दवा है, इसमें अभ्रक भस्म के साथ प्रवालभस्म और गिलोय का सत्व देते हैं । इसी विकार में यदि प्रथम उपदंश का विकार हुआ हो, तो इसी मिश्रण के साथ सारिवावलेह भी दिया जाता है । 



अभ्रक भस्म का प्रधान कार्य शरीर में लाल रक्त कणो को ताकत देना व उनकी मात्रा बढ़ाना है । इसलिए जिस अनुपान के साथ या द्रव्य के साथ वह दिया जाए उसका कार्य स्पष्ट हो जाता है । जैसे- दालचीनी के समान द्रव्यों के साथ देने से निमोनिया और टायफॉइड में फायदा होता है । क्यों कि इन रोगों में  परजीवी होते हैं और उनका नाश करने की शक्ति श्वेत अणुओ में होती हैं । लोहभस्म के साथ अभ्रक भस्म देने से श्वेत अणुओ में अधिक शक्ति आ जाती है । इसी कारण पंडुरोग में अभ्रक भस्म, लोहभस्म और त्रिफला को शहद के साथ दिया जाता है ।


" पेट सम्बन्धित विकार में उपयोग "


पेट की अशक्तता से पित्त का स्राव कम होता है, तो एक तरह से अपचन का विकार उत्पन्न हो जाता है । इसको अशक्तताजन्य अपचन कहते हैं। इस अपचन में अभ्रक भस्म देने से पित्तोत्पादक पिंड और आंतो को शक्ति मिलती है, और यह विकार ठीक हो जाता है। भोजन का स्वाद न समझ पाना भी आंतो के विकार कारण होता है। 


पेट में रसवाहिनी और रसोत्पादक पिंड के विकार से पेट में ग्रंथि बढ़ जाती है , इसमें हल्का-हल्का दर्द लगातार बना रहता है । इसके साथ ज्वर, कब्ज के कारण रोगी अशक्त रहता है । इसमें अभ्रक भस्म देना फायदेमंद होता हैं ।


गृहणी स्त्रियो में  कब्जियत की समस्या के कारण रक्त दूषित हो जाता हैं, जिससे रक्तादि धातु बिगड़ जाता हैं । जिससे बार-बार मुंह में छाले होने लगते हैं । हाथ की उंगलीयॉ पर लाल चलते पड़ जाते हैं । जब यह विकार पुराना हो जाता है, तब इसका स्वरूप अति भयानक होता है । इसमें भी अभ्रक भस्म देने से फायदा होता हैं ।


अम्लपित्त का विकार पुराना हो गया हो और सूतशेखरादि औषधि से फायदा नही हो रहा हो तो अभ्रकभस्म फायदेमंद होती हैं । 


" अतिसार में अभ्रक भस्म के फायदे "


क्षयजन्य अतिसार में अभ्रक भस्म, मौक्तिकभस्म, शंखभस्म और कपर्दिकभस्म के मिश्रण से फायदा होता है ।


पुराने और कष्टकारक अतिसार जब बहुत दिनों तक बने रहते हैं, तो शरीर कमजोर हो जाता है, धातुपरिपोषण कार्य सुचारू रूप से नही हो पाता । इससे स्नायु कमजोर हो जाती हैं,  इससे मल धारण नही हो पाता और बारबार अतिसार आती रहती है । इस प्रकार के अतिसार में अभ्रक भस्म से फायदा होता हैं । 


" मूत्र विकारों में अभ्रक भस्म के फायदे "


अवरोधक स्नायु की अशक्तता से बून्द-बून्द पेशाब आता रहता है । थोड़ा-सा पेशाब भी थैली में भरता है तो उसे जल्द निकालने की इच्छा होती है । पेशाब के इस विकार में अभ्रक भस्म अच्छा लाभ देती है ।


पुराने मूत्रकृच्छ्र विकार में भी अभ्रक भस्म का उपयोग होता है । पेशाब में बार-बार खून आने के विकार में भी अभ्रक भस्म से फायदा होता है । मधुमेह के विकार में शरीर में कम हुए  परमाणु अभ्रक भस्म से बढ़ जाते हैं । इस विकार में अभ्रक भस्म के साथ शिलाजीत भी दी जाती हैं । 


मानसिक आघात या वातवाहिनियों के अधिक परिश्रम से नपुंसकता आती है, तो अभ्रक भस्म से नपुंसकता दूर हो जाती हैं।


जननेन्द्रिय के स्नायू जननेन्द्रिय, जननेन्द्रिय के परमाणु, जननेन्द्रिय को चेतन करने वाली नसों और उनका मस्तिष्क में स्थान, इन सब अवयवों को अभ्रक भस्म शक्ति देती है, जिससे नपुंसकता दूर हो जाती हैं ।




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कपर्दिका (कौडी) भस्म के फायदे, उपयोग और गुणधर्म

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" कपर्दिका (कौडी) भस्म के फायदे और बनाने की विधि "

" कपर्दिका ( कौडी ) कितने  प्रकार की होती हैं "


कपर्दिका ( कौडी ) तीन प्रकार की होती है ( सफेद, पीली और शोण ) । भस्म के लिए सिर्फ पीली कौडी प्रयोग में ली जाती हैं। पीली कौडी भी तीन प्रकार की होती हैं । पहली वजन में भारी डेढ़ तोले की होती हैं जिसे श्रेष्ठ माना जाता हैं, दूसरी मध्यम वजन की जो लगभग एक तोले की होती हैं और तीसरी हल्की और पौन तोले की होती हैं । 


" कपर्दिका ( कौडी ) शुद्धिकरण विधि "


कपर्दिका ( कौडी ) को शुद्ध करने के लिए छांछ, आंबीलोना रस या नीम्बू के रस में आठ दिन तक भिगोना होता हैं। कपर्दिका ( कौडी ) को सफेद हो जाने तक इसको अम्ल पदार्थों की भावना दी जाती हैं, और इसको धोकर शुद्ध कर लिया जाता है ।


" कपर्दिका ( कौडी ) भस्म बनाने की विधि "


>> पहली विधि - शुद्ध की हुई कपर्दिका ( कौडी ) को गजपुट दी जाती है, जिससे वह और भी सफेद हो जाती है। फिर इसका चूर्ण बना लिया जाता हैं, और भस्म तैयार ।


>> दूसरी विधि - शुद्ध कपर्दिका ( कौडी ) को गजपुट देने के बाद चूर्ण बनाकर घीगुवार के रस में और नीम्बू के रस में सात बार भावना दी जाती हैं। और हर भावना के बाद गजपुट देना चाहिए। इस विधि से भी अच्छी कपर्दिका ( कौडी ) भस्म तैयार होती हैं । कपर्दिका ( कौडी ) भस्म तैयार होने के बाद इसका रंग बिलकुल सफेद हो जाता है ।


 " कपर्दिका ( कौडी ) के फायदे और उपयोग "


कपर्दिका ( कौडी ) भस्म एक चूने का सेन्द्रिय कल्प है और सेन्द्रिय होने के कारण निरिन्द्रिय द्रव्यों से जल्द और आसानी से शरीर में मिल जाती है ।


" कपर्दिका ( कौडी ) का पेट रोगो में उपयोग "


कोष्टगत वात की वृद्धी के कारण पेट फूलना, पेट दर्द, शूल, खाना खानें के बाद एक ही जगह पर अटका रहना, कभी सूखी कभी खट्टी डकारे आना, जी मिचलाना, कभी वातकारक और अजीर्ण जैसी समस्याए हो जाती है । इन समस्याओ में कपर्दिका ( कौडी ) भस्म फायदेमंद होती हैं ।


उपरोक्त रोगो में कै ( उल्टी ) ज्यादा हो रही हो और हर उल्टी के साथ पेट अधिक फूलता हो और पेट का शूल भी अधिक हो तो कपर्दिका ( कौडी ) भस्म के साथ अनार पाक देने से उत्तम परिणाम मिलते हैं । 


रसाजीर्ण की आदत में भी कपर्दिका ( कौडी ) भस्म को एक अच्छा उपचार माना गया हैं ।


पुराने अग्निमांद्य  ( बदहज्मी ) या जीर्ण ज्वर और प्लीहा की  वृद्धि से हुए अग्निमांद्य में कौडी भस्म को घी के साथ देने से फायदा होता हैं ।


" वातपित्त में कपर्दिका ( कौडी ) भस्म का उपयोग "


वातपित्त विकार के कारण उत्पन्न हुआ शूल कपर्दिका ( कौडी ) भस्म से ठीक हो जाता हैं । कपर्दिका ( कौडी ) भस्म पित्त विकृति में फायदेमंद होती है।  


अन्नद्रवाख्य शूल में भी कपर्दिका ( कौडी ) भस्म लाभप्रद होती है । इस शूल में वातप्रकोप ( पेट फूलना और दर्द ) हो तो कपर्दिका ( कौडी ) भस्म के साथ शंखभस्म मिलाकर देने से उत्तम लाभ मिलता हैं । 


अम्लपित्त की प्रथम अवस्था में खट्टी और दर्द युक्त उल्टी होती है । इस अवस्था में कपर्दिका भस्म के साथ सुवर्णमाक्षिक भस्म देने से अच्छा फायदा मिलता हैं । 


" रसक्षय की प्रथम अवस्था में उपयोग "


रसक्षय की प्रथम अवस्था में कपर्दिका भस्म दी जाती हैं । थोड़ा खाने पर भी न पच पाना, मीठी डिकारें आना, बदबू आना और कब्जियत रहना इन लक्षणों में कपर्दिका ( कौडी ) भस्म से फायदा होता है ।


" रक्तपित्त और क्षतक्षय में उपयोग "


रक्तपित्त और क्षतक्षय के विकार में कौडी  भस्म के साथ प्रवालभस्म और सुवर्णगेरू इन तीनों का मिश्रण दिया जाता हैं । इसमें रहने वाला चूना अंश और माधुर्योत्पादक गुण से रक्त और रक्त वाहिनियों का स्तंभन होने खून आना रुक जाता है । 


" कर्ण विकार में कौडी भस्म का उपयोग "


कर्ण स्त्राव में जब स्राव गाढ़ा,  तीक्ष्ण और फुन्सियों वाला हो तो कपर्दिका भस्म दी जाती हैं, लेकिन सर्व प्रथम थोड़ी सी  कपर्दिका भस्म मीठे तेल के साथ कान में डाले और कुछ कपर्दिका भस्म दूध के साथ पीने से कर्ण स्त्राव में लाभ मिलता हैं ।


" चर्म विकार में कपर्दिका भस्म का उपयोग "


चमड़ी के जलने पर कपर्दिका भस्म, मुरदाडसिंग, सुवर्णगेरू, गिलोय सत्व, चंदन और बंसलोचन समान भाग लेकर इसमें अरंडी के तेल में अच्छी तरह से खरल करके मरहम तैयार करे, इस मरहम का जली हुई चमड़ी पर गाढ़ा लेप करे । जैसे ही लेप लगाया जाता है,  तुरंत आराम मिल जाता है और जलन बंद हो जाती है । और फोड़े होने की नौबत नहीं आती । 


" कपर्दिका ( कोड़ी ) भस्म के गुणधर्म " 


इसके गुणधर्म पित्तशामक,  पित्त की अम्लता को कम करना, कोष्ठस्थ वातनाशक और पाचक हैं ।


" कपर्दिका भस्म के कार्य "


कपर्दिका भस्म का व्यवहार यकृत्, प्लीहा, आमाशय और ग्रहणी इन अवयवों पर होने वाले विकारों पर होता है  


" कपर्दिका भस्म के दोष "


पित्तदोष, कपर्दिका भस्म लेने से कभी कभी मुंह में छाले पड़ जाते हैं, तब उसमें गिलोय का सत्व मिलाना चाहिए ।


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Tuesday, June 28, 2022

मोटापे से कैसे बचे , मोटापे के कारण , नुकसान और बचाव

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" हमारा शरीर आयुर्वेद और सनातन धर्म के अनुसार "


आयुर्वेद और सनातन धर्म के अनुसार हमारे शरीर का निर्माण प्रकृति के पांच तत्व ( पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु और आकाश ) से हुआ है । ये तत्त्व शरीर में अलग - अलग तरह से प्रकट होते हैं और मेटाबॉलिज्म की निगरानी व नियंत्रण करते हैं ।


" दुनियाभर में मोटापे संबंधित आंकड़े "


वर्तमान स्थिति में 57% महिलाएं व 48% पुरुष मेटाबॉलिक समस्याओं से के उच्च रिस्क का सामना कर रहे हैं । 


विश्वभर में 24% महिलाएं व 23% पुरुष मोटापा व उससे संबंधित समस्याओ से ग्रस्त हैं । 


ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी की रिपोर्ट के अनुसार पिछले कुछ वर्षो में लगभग 50 लाख लोगों की मौत प्रति वर्ष सिर्फ मोटापे से हुई हैं । 


आज दुनिया में  39%  वयस्कों का वजन सामान्य से अधिक है । और वर्ष 2025 तक यह आंकड़ा लगभग 42% तक पहुंच जाएगा  है । 


" मोटापा कितना खतरनाक हैं या इससे होने वाली बिमारियां "


मोटापा आपके लिए स्ट्रोक , कैंसर, प्रजनन क्षमता में कमी , दिल,  ऑस्टियो, आर्थराइटिस, टाइप -2 डायबिटीज, पित्ताशय की बीमारी, सांस, उच्च रक्तचाप, फैटी लिवर और न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर जैसी कई गंभीर बीमारियां की वजह बन सकता है। 


" मोटापा बढने के संभावित कारण "


वजन बढ़ना एक जीवनशैली से संबंधित समस्या है । ज्यादा वजन , मोटापा जैसी समस्याओं में असामान्य रूप से वसा जमा होने लगता है,  जिससे स्वास्थ्य गिरने लगता है, और गंभीर बीमारियों होने की आशंका बढ़ जाती है ।


>> असमय ज्यादा खाना और फिजिकल एक्टिविटी से दूर रहना मोटापे का कारण होता है । 

>> भोजन में ज्यादा वसायुक्त आहार को शामिल करना। 

>> दिनचर्या में व्यायाम को शामिल न करना या कम करना और स्थिर जीवन यापन मोटापे का प्रमुख कारण होते है । 

>> असामान्य व्यवहार व मानसिक तनाव के कारण लोग ज्यादा खाने लगते हैं , जो मोटापे का कारण बनते है ।

>> शारीरिक क्रियाओं का सही ढंग से संचालन नहीं होने पर भी शरीर में चर्बी जमा होने लगती है ।

>> बचपन या युवावस्था में किसी का वजन अधिक होता है, तो यही आशंका आगे तक बनी रहती हैं । 

>> दिन में खाना खाने के बाद सोने की आदत भी मोटापे का कारण होती है । 

>> बिना परिश्रम किए मिलने वाला जंक फास्ट फूड अधिक खाना वजन बढ़ने का कारण हैं ।


" मोटापा व उससे उत्पन्न समस्याओ से कैसे बचा जाए "


>> अगर आप वजन को नियंत्रित करके रखना चाहते है, तो कोशिश करना चाहिए कि जितनी कैलोरी आप ले रहे हो, उतनी ही कैलोरी एक्सरसाइज से कम करें । 


>> प्रकृति और मानव शरीर में अपने आप को हील करने की शक्ति होती है । नेचुरोपेथी में विभिन्न उपचारों को शामिल कर शरीर से विषाक्त पदार्थों को डिटॉक्स करना चाहिए और भरपूर मात्रा में पानी पीना चाहिए ।


>> प्राकृतिक चिकित्सा , आयुर्वेद , योग , आहार जैसी पद्धतियों का उपयोग करते हुए शरीर की आंतरिक ऊर्जा को फिर से संतुलित किया जा सकता है ।


>> कितनी डाइट की जरूरत है, यह जाने बगैर लोग ओवर डाइट ले लेते हैं , इससे बचना चाहिए । इसमें सुधार करने के लिए डाइट प्लान बदलने की जरूरत होगी । एक बार में न खाकर, थोड़े - थोड़े अंतराल में खाना चाहिए, और भोजन पूरी तरह संतुलित होना चाहिए ।


>> शारीरिक व्यायाम, योग का समय बढ़ाकर या डांस , स्विमिंग जैसी एक्टिविटीज को ज्यादा समय देकर भी फिट रहा जा सकता है । घर के कामों के साथ-साथ कम से कम निर्धारित समय फिटनेस के लिए  जरूर दे।


>> सुबह जल्दी उठकर एक्सरसाइज में अच्छाखासा समय दे । औरते यह न मानें कि वे सारे दिन काम करती है,  तो उन्हे व्यायाम करने की जरूरत नहीं है । नियमित रूप से व निर्धारित मात्रा में पानी पीना चाहिए । तनाव , अवसाद जैसी मानसिक समस्या से बचना चाहिए ।

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Saturday, June 25, 2022

कैमोमिला ( CHAMOMILLA ) के व्यापक, लक्षण, मुख्य रोग, फायदे व उपयोग

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कैमोमिला ( CHAMOMILLA ) के व्यापक, लक्षण तथा मुख्य रोग विस्तार पूर्वक विवेचना


कैमोमिला के रोगी में मानसिक लक्षणों को प्रधान माना गया हैं । रोगी अधिक क्रोधी और चिडचिडा होता है, साधारण पीडा को भी असह्य बताता हैं । बच्चे चिडचिडेपन के कारण कभी एक तो कभी दूसरी चीज़ के लिए कहते  हैं, दिए जाने के बाद फेंक देते हैं और गोद मे ही रहना पसंद करते हैं । 


" कैमोमिला की प्रकृति " 


बच्चे को गोद में लेने पर शांत रहता हैं ।  साधारण ( न सर्द, न गर्म) मौसम में अच्छा अनुभव करना । रोगी में क्रोध से रोग के लक्षण बढ़ते हैं । ठंडी हवा से, दांत निकलते समय की परेशानी से और रात में कष्ट बढ़ जाता हैं ।


" क्रोध व चिड़चिडापन "


छोटे बच्चो के दांत निकलते वक्त की समस्याओ के लिए यह अत्तम दवा हैं, परन्तु उस वक्त उनके मानसिक लक्षणों को ध्यान रखा जाता हैं । इसे क्रोध की दवा के रूप में जाना जाता हैं । क्रोध के आवेश से जो रोग उत्पन्न होते हैं, उन्हे यह दवा ठीक कर देती हैं । 


क्रोध और चिडचिडापन एक-दूसरे के पूरक हैं । क्रोधित होने वाला व्यक्ति हर बात से चिड जाता है, और  चिडचिडे व्यक्ति को थोङे सा टोकने पर भी क्रोध आ जाता हैं । 


>> बच्चों में मानसिक लक्षण - बच्चा गोद में रहना चाहता हैं उसे कोई चीज अच्छी नही लगती, उसे फेंक देता हैं । कैमोमिला के बच्चो को उनकी चेष्टाओ से पहचाना जा सकता हैं । उसे कितना क्रोध आ रहा है, वह कितना चिडचिडा है । वह कभी इस चीज और कभी उस चीज़ की तरफ हाथ बढाता हैं । जब वह चीज़ उसे दे दी जाती है, तो वह उसे फेंक देता है,  चिल्लाता हैं । दांत निकलने की पीड़ा के कारण यह चिडचिडाहट होती हैं । उसकी यह परेशानी कैमोमिला  की एक मात्रा से ही दूर हो जाती हैं । 


>> युवाओं में कैमोमिला के मानसिक लक्षण - क्रोध तथा चिडचिडापन  युवाओं के भी मानसिक लक्षण हैं, यह दवा इन पर भी उतनी ही प्रभावी हैं, जितनी बच्चों पर । 


" ज्यादा दर्द का अनुभव "

 

दर्द को शान्त करने के लिए होम्योपैथिक में इसे उत्तम दवा माना गया हैं । रोगी थोड़े से दर्द से ही तिलमिला उठता है, और आसमान सिर पर उठा लेता हैं । दर्द से कहराता है । ऐसे दर्द में अगर उसे कैमोमिला 200 शक्ति की एक मात्रा दी जाए, तो उसकी दर्द की शिकायतें जाती रहती हैं । 


दर्द के साथ सुन्नपन - इसका एक विशेष लक्षण यह हैं कि जिस अंग में दर्द होता हैं, उसमें सुन्नपन आ जाता हैं, तो उसे कैमोमिला दूर कर देती हैं।

 

" बच्चो में दांत निकलते वक्त की समस्याए "


कान व पेट का दर्द, ऐंठन, पालक से दस्त, नींद न आना  निसंदेह इन शिकायतों के लिए भी कैमोमिला अमृत तुल्य दवा  हैं, परन्तु इन लक्षणों के साथ बच्चो में चिडचिडापन का लक्षण होना जरूरी है । 


" कैमोमिला के अन्य लक्षण "


>> गर्मी से दांत दर्द बढना - रोगी का ठंडे मिजाज़ का होना और ठंड को पसन्द नहीं करना इसका ' व्यापक लक्षण ' हैं और दांत दर्द में ठंडे पानी से आराम होना ' विशिष्ट लक्षण ' है । 


>> पैरो में जलन - पैरो में जलन का लक्षण कैमोमिला के मरीजों में भी पाया जाता हैं । यह लक्षण सल्फर में भी होता हैं ।


>> युवाओं में गठिए का दर्द - कैमोमिला युवाओं के दर्द , विशेषकर गठिए के दर्द में लाभप्रद होती हैं । 


>> एक गाल लाल दूसरा पोला - बच्चे में यदि यह लक्षण पाया जाए तो उसकी सभी शिकायते यह दवा दूर कर देती हैं। 


कैमोमिला की प्रकृति - यह शीत प्रधान औषधि है ।

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Sunday, June 19, 2022

चायना ( CHINA OR CINCHONA ) के व्यापक लक्षण, मुख्य रोग तथा फायदे

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चायना ( CHINA OR CINCHONA ) के व्यापक लक्षण, मुख्य रोग तथा फायदे विस्तार से जाने -

  • रक्तस्राव, प्रदर, अति वीर्यपात आदि से उत्पन्न दुर्बलता 
  • सविराम ज्वर ( मलेरिया ) में फायदेमंद 
  • पूरे पेट में वायु भर जाना, डकार से आराम न मिलना 
  • स्पर्श सहन न कर पाना, परन्तु जोर से दबाने पर सहन कर पाना 
  • किसी विचार से छुटकारा न पाना

होम्योपैथिक का जन्म चायना के अविष्कार से हुआ हैं। डॉ. हनीमेन ने सबसे पहले सिनकोना की छाल का प्रयोग सविराम ज्वर से सम्बन्ध जानने के लिए किया था। इस प्रयोग से उनकी आँखो के सामने उप काल का प्रकाश हुआ जिसका तेज उत्तरोत्तर बढ़ता गया और एक नवीन चिकित्सा प्रणाली का जन्म हुआ । इस प्रयोग से यह स्पष्ट हो गया कि औषधि स्वस्थ व्यक्ति के ऊपर रोग के जो लक्षण उत्पन्न करती है , रोग में उन्ही लक्षणों के प्रकट होने पर वह औषधि उन लक्षणों को समाप्त कर उस रोग को ठीक कर देती हैं ।


" चायना की प्रकृति "


रोगी को जोर से दबाने व गर्मी से आराम अनुभव होता है। जबकि किसी रस के स्राव से, रक्त तथा रस के क्षय से, दूध व फलों से रोग में वृद्धि होती हैं।  


" रक्तस्राव, प्रदर, अति वीर्यपात आदि से उत्पन्न दुर्बलता "


जब शरीर से रक्तस्राव अधिक हो गया हो और प्राणद स्रावों का बहाव हुआ हो , वीर्य स्राव से दुर्बलता आई हो , ऐसी दुर्बलता को चायना दूर कर देती हैं । इस प्रकार की दुर्बलता में इसे ' Pick me up ' कहा जाता हैं । इन्फ्लुएन्जा से बिमार हो जाने के बाद जब बेहद कमज़ोरी आ जाती है , वह सर्दी सहन नहीं कर पाता , सोचता है कि अब शायद ठंडे कपडे पहनने के दिन ही नही आयेंगे , गर्म कपडो से ही काम चलाना पडेगा , तब चायना 200 की एक मात्रा ठीक कर देती हैं । 


>> रक्तस्राव से होनेवाली दुर्बलता - जिस रोगी को रक्तस्राव अधिक हुआ हो । यह रक्तस्राव कैसा भी हो सकता है । किसी भी अंग से हो सकता हैं । जरायु से रक्तस्राव के साथ ऐंठन भी हो जाती हैं । ऐसी स्थितीं मे सिनकोना ( चायना ) रक्तस्राव को रोकने के साथ साथ उससे होनेवाली कमज़ोरी को भी दूर करदेती हैं । प्रदर से होने वाली दुर्बलता को भी सिनकोना ( चायना ) दूर कर देती है । 


>> अतिसार से होनेवाली दुर्बलता - चायना के अतिसार में दर्द नहीं होता और इसका अतिसार पनीला  होता है । भोजन नही पचता और मल में बिना पचा ही निकल जाता हैं । 


>> अति वीर्यपात से होनेवाली दुर्बलता - शरीर की जो भी प्राणप्रद ग्रन्थिया हैं उनसे स्राव से होनेवाली कमजोरी को चायना दूर कर देती हैं । वीर्य जो जीवन का सार है, इसके अधिक स्त्राव से जो कमजोरी होती है उसका इलाज चायना कर देती है ।  हस्तमैथुन आदि कुकर्मों से होनेवाली कमजोरी को यह दूर करती हैं । 


" सविराम ज्वर "


चायना सविराम ज्वर में अच्छा काम करती है , लेकिन हर प्रकार के सविराम ज्वर में नही करती । चायना के ज्वर में प्यास के लक्षण पर विशेष ध्यान केंद्रित किया जाता हैं। रोगी को सर्दी लगने से बहुत पहले प्यास लगती हैं , और जैसे ही सर्दी लगती है और प्यास खत्म हो जाती हैं । चायना का प्रत्येक ज्वर दो से तीन घंटे पहले आता है , रात को बुखार नही आता हैं ।


" पूरे पेट में गैस भर जाना, डकार से आराम न होना "


रोगी का पेट तना रहता है , लगातार डकार आने पर भी आराम नही मिलता , पेट भरा - भरा महसूस होता हैं । जब पेट में वायु अटक व अवरुद्ध हो जाए तब चायना 200 की एक खुराक वायु को निकाल देती हैं । 


" स्पर्श सहन न कर पाना "


सारा स्नायु मंडल अत्यन्त नाजुक हो जाता हैं । पीङा के स्थान को छूते ही रोगी कराह उठता है और छूने नही देता हैं । यदि फोड़े को हल्के - हल्के दबाया जाए , तो रोगी दबाव सहन करने लगता हैं । यदि जोर से दबाव दिया जाए तो रोगी उस दबाव को सह लेता हैं , उसे कुछ आराम मिलता है । दांत दर्द में उसे दबाने से आराम मिलता हैं । दबाने पर आराम मिलना इस औषधि का विशिष्ट लक्षण हैं । 


स्नायु मंडल की नाजुकता बालो पर भी प्रकट होती है । बालो में हवा से भी दर्द महसूस होता है । नसों को दबाने से दर्द में आराम हो , तो सिनकोना ( चायना ) अधिक उपयोगी हैं । ऐसे दर्द जो स्पर्श से जाग्रत हो जायें , और बढ़ते चले जाए और तीव्र रूप धारण कर लें , तो चायना उसे ठीक कर देती हैं । 


" किसी विचार से छुटकारा न पाना "


इसके रोगी के दिमाग में विचार ऐसे जम जाते हैं कि वह उनसे छुटकारा नही पा पाता । वह समझता है कि उसके शत्रु उसके पीछे पड़े हैं । वह कही भी जाता है ,  कुछ भी करता है , तो उसे लगता है कि शत्रु उसके कार्य में बाधा डाल रहे हैं । इन काल्पनिक शत्रुओं से छुट कारा पाने के लिए चायना उचित दवा हैं । 


" सिनकोना ( चायना ) के अन्य लक्षण "


>> सामयिकता - यदि ज्वर हर दूसरे तीसरे दिन आता है , तो चायना का प्रयोग करना चाहिए । सामयिकता भी इसका विशेष लक्षण हैं । 


>> जिगर का पुराना रोग - जिगर के पुराने रोग में यह उत्तम दवा हैं । पेट के दाई तरफ के निचले हिस्से में दर्द होता हैं , कभी - कभी पसलियो के निचले हिस्से में स्पर्श द्वेषी जिगर हो जाता हैं । रोगी की त्वचा पीली पङ जाती हैं । मल का रंग सफेद होता है क्योकि जिगर पित्त का प्रवाह पूरी तरह नही कर पाता ।


>> कीडो की उल्टी के सपने - अगर रोगी को बार - बार ऐसे सपने आए कि उल्टी में जीवित कृमि निकल रहे हैं तो यह इसका विशिष्ट लक्षण है । 


" चायना की प्रकृति "


कमजोरी में चायना तबतक इस्तेमाल करे जबतक कमजोरी के लक्षण दूर न हो जाए । यह शीत प्रधान दवा हैं।

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