Friday, July 22, 2022

ताम्रभस्म भस्म के उपयोग, फायदे, शुद्धिकरण व बनाने की विधि


ताम्र कितने प्रकार की होती है - ताम्र दो प्रकार की होती है - नेपाल और म्लेंच्छ, भस्म के लिए नेपाल ताम्र को श्रेष्ठ माना गया हैं । 


" ताम्र शुद्धिकरण विधि "


ताम्र को निम्न प्रकारो से शुद्ध किया जाता हैं ।


>> गोमूत्र, नींबू का रस और सुहागे के साथ ताम्र के पतले पतले पत्रो को एक पहर तक पकाकर शुद्ध किया जाता है ।


>> ताम्र के पतले-पतले पत्रो को गोमूत्र में उबलाकर शुद्ध किया जाता है । 


>> ताम्र के पत्रो को नींबू के रस के साथ सैंधानोन से लेप कर, आग में तपाकर बुझा दे, यह प्रक्रिया सात बार दोहराने से ताम्र शुद्ध हो जाता है ।


>> ताम्र के पत्रो को नींबू का रस के साथ सेंधानोन से लेप करके आग में तपाकर निर्गुंडी के रस में आठ दफा बुझाने से ताम्र शुद्ध होता है । 


>> ताम्र के पत्रो को थूहर का रस, आक का रस और नमक से लेप करके आग में तपाकर निर्गुंडी के रस में तीन बार बुझाने से ताम्र शुद्ध होता है ।


" ताम्रभस्म बनाने के प्रकार व विधि " 


>> पारा और गंधक की कज्जली बनाकर उसको नींबू के रस में घोंट कर, इसका शुद्ध किए हुए ताम्र पत्रो पर लेप किया जाता हैं । फिर उसको मिट्टी के शराव में डालकर दूसरे शराव से ढककर उसपर गीली मिट्टी में लिपटा हुआ कपड़ा लपेटकर सुखाया जाता हैं । फिर अग्नि में तीन बार गजपुट देकर भस्म बनाई जाती है ।


>> ताम्र के वजन के बराबर पारा, इतना ही गंधक, ताम्र का आधा हरताल और ताम्र का एक चौथाई मनसील लेकर कज्जली तैयार की जाती हैं । इसमें से थोड़ा सा गर्भयंत्र में डालकर उस पर ताम्र के शुद्ध किए हुए टुकडे रखे जाते हैं, फिर उस पर कज्जली डाली जाती है और फिर टुकड़े और फिर कज्जली। इस तरह जब सभी ताम्र पत्र रख दिए जाए, तब इसको एक पहर तक पकाकर ठंडा करके भस्म बना ली जाती हैं।


>> एक भाग गंधक और एक भाग शुद्ध ताम्र लेकर, मिट्टी के कटोरे में आधा गंधक डालकर उसपर शुद्ध ताम्र के टुकड़े डाले, फिर उसपर आधा गंधक, फिर दूसरे कटोरे से ढक दिया जाता है, फिर मिट्टी से लिपटा हुआ कपड़ा लपेटकर तीन पहर तक गजपुट से आंच दी जाती हैं । और ठंडा होने पर उसकी भस्म बना ली जाती हैं। 


अच्छी तरह से बने हुए ताम्रभस्म का रंग मयूरकण्ठ जैसा नीला होता है ।


" ताम्रभस्म के फायदे, उपयोग व गुणधर्म "


ताम्रभस्म का प्रमुख उपयोग शरीर की विभिन्न ग्रंथियों की सूजन या उनके बढ़ जाने पर उनके आकार को कम करने के लिए किया जाता हैं । कफप्रधान या कफवातप्रधान दोषदुष्टी में ताम्रभस्म फायदेमंद होती हैं ।


" ताम्रभस्म का यकृत विकार में उपयोग "


ताम्रभस्म सर्व प्रथम यकृत में जाती है, और फिर पूरे शरीर में फैलती है। इसलिए सबसे पहले यकृत और पित्ताशय पर असर करती है । पित्ताशय का संकुचन हो गया हो या पित्त स्राव गाढ़ा हो गया हो या पित्ताशय विकार से पेट में दर्द हो तो इस तरह के पेट दर्द में ताम्रभस्म से फायदा होता हैं । और इससे यकृत पित्त का स्राव नियमित हो जाता है ।


" उदर विकारों में ताम्रभस्म का उपयोग " 


बढ़े हुए प्लीहा को कम करने के लिए ताम्रभस्म का उपयोग किया जाता हैं । गुल्म और अष्ठीला विकारों में ग्रंथियों का क्षरण करने के लिए ताम्रभस्म का उपयोग किया जाता है । गुल्म के विकार में ताम्रभस्म के साथ कुमारी आसव दी जाती हैं । आमाशय की कर्कटग्रंथि ताम्रभस्म से कम हो जाती हैं ।


" हैजे में ताम्र भस्म का उपयोग "


हैजे में जब अधिक दस्त आते हैं, और हाथ-पैरो में ऐंठन होती है । यह ऐंठन ताम्रभस्म से कम हो जाती है । इस हालत में ताम्रभस्म का कम मात्रा में और बार-बार प्रयोग किया जाता हैं । ऐंठन तो कम होगी, साथ ही वमन, शूल और भ्रम भी कम होते हैं । 


" अम्लपित्त में ताम्रभस्म से फायदा "

इस प्रकार के अम्लपित्त में उल्टी कम होती है, लेकिन पित्त के कारण जलन अधिक होती है , चक्कर आते हैं और पेट में तीव्र शूल होता है । इन लक्षणों को कम करने के लिए ताम्रभस्म दी जाती है । इससे पित्त शरीर से बाहर निकल जाता है । 


" कोष्ठद्रवशूल में ताम्र भस्म का उपयोग "


अष्ठीला ग्रंथि के बढ़ जाने के कारण कोष्ठद्रवशूल या दूसरे कोष्टशूल उत्पन्न हो जाए तो ताम्रभस्म दी जाती हैं । यह कठिन से कठिन कोष्टशूल को भी धीरे धीरे कम कर देती है । अष्ठीला के साथ यदि कफज गुल्म बढ़ गया हो तो भी ताम्रभस्म उसे ठीक कर देती हैं ।


" पांडुरोग में ताम्रभस्म का उपयोग "


पांडुरोग से कभी-कभी प्लीहा या यकृत बढ़ जाते है । चमड़ी का रंग हल्का पीला पड़ जाता है,और चमड़ी पर स्निग्धता और सुफेदसा रंग रहता है । पूरे शरीर पर थोड़ी-थोड़ी सूजन रहती है । इसका कारण भी प्लीहा या यकृत् का विकार हो सकता है । इसमे भी यदि पित्त की क्षीणता और कफ की वृद्धि हो तो ताम्रभस्म दी जाती हैं । 


" प्रमेह विकार में ताम्रभस्म का उपयोग "


यदि मांस खाने वाले व्यक्ति को प्रमेह विकार हो तो दूसरी औषधियों की अपेक्षा ताम्रभस्म अधिक फायदेमंद होती हैं । ताम्रभस्म से जो पित्त उत्पन्न होता है, उससे मांस का पचन आसानी से हो जाता है, इसी कारण वह प्रमेह के विकार में फायदा करती है ।


" ग्रहणी विकार में ताम्रभस्म का उपयोग "


ग्रहणी विकार में पित्त की उत्पत्ति कम होती है, और वह तीक्ष्णता में भी कम होती है । इस अवस्था में मल बिलकुल सफेद, बाजरे के आटे जैसा, चिकना और बदबूदार होता है । जी मिचलाता है और कभी-कभी उल्टी भी हो जाती है, यह उल्टी भी सफेद, चिकनी और दुर्गंधयुक्त होती है । इन लक्षणों में ताम्रभस्म से फायदा होता हैं । 


" ताम्रभस्म के गुणधर्म "


ताम्रभस्म कड़क, तीक्ष्ण, उष्ण, भेदन करने वाली, पित्त का स्राव बढ़ाने वाली है और बहुत उत्तेजक होती हैं ।


" ताम्रभस्म के नुकसान "

 

>> ताम्रभस्म उत्तेजक होने के कारण इसका प्रयोग सावधानीपूर्वक किया जाता हैं ।


>> ताम्रभस्म के उपयोग से गर्भवती महिला, सूतिका महिला, बाल अवस्था, वृद्ध अवस्था, क्षतक्षीण, क्षय रोगी और बवासीर के रोगी को बचना चाहिए। 


>> ताम्रभस्म के उपयोग से अतिसार की सम्भावना भी रहती है ।


>> ताम्रभस्म के प्रयोग से नाक और गले से रक्तस्राव हो सकता है ।


>> मूत्रपिंड के विकार के कारण जलोदर हुआ हो तो ताम्रभस्म से मूत्रपिंड की सूजन बढ़ जाती है, और पेशाब कम आने लगता है ।



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