Monday, October 10, 2022

सिस्टस ( CISTUS ) के व्यापक लक्षण, मुख्य रोग और फायदे

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सिस्टस ( CISTUS ) के व्यापक लक्षण, मुख्य रोग और फायदों का विश्लेषण


● पुरानी ज़ुकाम में नाक खाली होने से जलन  

● अंगो में ठंड लगना 

● घी, मांस और नमक से परहेज, पनीर में रुचि 

● शीत से रोग में वृद्धि तथा गर्मी से आराम 

● कण्ठमाला ग्रस्त धातु 

● अंगुलियों में एग्जीमा 


सिस्टस की प्रकृति - गर्मी और श्लेष्मा निकलने से रोग में कमी आती हैं। ठंडी हवा से, मानसिक उत्तेजना से और  शाम के समय रोग में वृद्धि होती हैं । 


" पुरानी ज़ुकाम में नाक खाली होने से जलन "


यह औषधि पुराने जुकाम में ज्यादा असरकारक होती हैं । यदि नये जुकाम में भी लक्षण मिलते हैं, तो फायदा करती हैं। 


जुकाम में जब नाक में गाढ़ा पीला श्लेष्मा भरा होता है, और जब इसे बाहर निकाल दिया जाता है, तब खाली नाक में जलन होती हैं । और फिर से जब नाक में श्लेष्मा भर जाता हैं, तो आराम मिलता हैं । खाली नाक में जब रोगी सांस लेता है तो उसे तकलीफ होती है । यह तकलीफ ठंडी हवा के कारण होती हैं । 


" अंगो में ठंड लगना "


रोगी को भिन्न-भिन्न अंगों में ठंड की अनुभूूति होती है। ठंड इस औषधि का मुख्य लक्षण हैं । मस्तिष्क, जीभ, गले, श्वास - नलिका, पेट, छाती, अंगुलियों और पैरो में ठंड के लक्षणों में इस औषधि का प्रयोग किया जाता हैं।


" घी, मांस और नमक से परहेज, पनीर में रुचि "


पुरानी जुकाम में रोगी को यदि पनीर खाने की तीव्र इच्छा हो और घी, मांस तथा नमक से दूरी रखता हो, तो यह औषधि चमत्कारी असर करती हैं । 


" शीत से रोग में वृद्धि तथा गर्मी से आराम "


इस औषधि के रोगी को शीत में अत्यन्त कष्ट होता है, और गर्मी से आराम मिलता हैं । नाक की सर्दी में रोगी गर्म हवा अन्दर लेना चाहता हैं । रोगी की त्वचा ठंडी नहीं होती लेकिन भीतर से अधिक ठंड महसूस करता हैं ।


" कण्ठमाला ग्रस्त धातु "


कंठमाला ग्रस्त धातु का शरीर कैलकेरिया कार्ब की तरह सिस्टस में भी होता है । शरीर की गिल्टियां दोनों औषधियों में बढ़ती हैं । दोनों में सर्दी से तकलीफ होती हैं । दोनों में क्षय रोग की भावना होती हैं । दोनों में परिश्रम से थकान होती हैं, सांस फूलने लगती हैं और पसीना आता हैं । ये सभी लक्षण दोनों औषधियों में होते हैं । कंठमाला - ग्रस्त रोगी के लिए औषधि का निर्वाचन करते हुए इन दोनों औषधियों को ध्यान में रखा जाता हैं । 


" अंगुलियों में एग्जीमा "


सर्दी से हाथ की अंगुलियाँ फट जाती हैं, ठंडे पानी से हाथ धोने से अंगुलियों मे छिलकेदार ज़ख्म हो जाते हैं, खून तक निकल आता हैं । इन लक्षणों में इस औषधि से अच्छा लाभ होता हैं । 


" सिस्टस की शक्ति तथा प्रकृति "


यह औषधि दीर्घ - क्रिया करने वाली हैं । सोरा दोष से दूषित, कठमाला ग्रस्त धातु के शरीर में लाभप्रद हैं । यह शीत प्रकृति की औषधि हैं । 

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सिना ( CINA ) औषधि के व्यापक लक्षण व फायदें

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सिना ( CINA ) औषधि के व्यापक लक्षण व फायदों का विश्लेषणात्मक वर्णन 


" पेट में कीडे "


सिना मुख्य रूप से बच्चों की दवा हैं । इसे कृमि धातु के बच्चों के लिए उपयोग किया जाता है । ये कृमि गोल और गिडोये जैसे होते हैं । 


● इस औषधि का बच्चा नाक में खुजली के कारण बार-बार ऊंगली डालता हैं, कभी-कभी खुजलाते हुए खून निकाल लेता है । बच्चा सोते हुए चौक जाता हैं, सोते हुए दांत किटकिटाते हैं और अंगो में कम्पन्न होता हैं ।  


● दूसरे प्रकार का बच्चा कैमोमिला की तरह चिड़चिड़ा होता हैं । कभी-कभी बच्चा नर्स को लात मार देता है, हर समय गोद में रहना और झूले में झूलना पसंद करता है । बच्चा जिस वस्तु की चाह करता है, जब वह दी जाती हैं, तो लेने से मना कर देता है । सीना 200 शक्ति में अच्छी असरकारक होती है ।


" सिना के अन्य लक्षण " 


● सिना का बच्चा भूख से चिल्लाता है । और खाने के बाद भी उसकी भूख संतुष्ट नही होती । 


● बच्चे के दोनों गालो का रंग कभी गर्म लाल होता है । कभी एक साथ लाल - पीला होगा ।


● सिना के बच्चे के पेशाब को रखा दिया जाए, तो थोड़ी देर बाद उसका रंग दूधिया हो जाता है ।


● बिस्तर में पेशाब - कृमि की खुजलाहट के कारण बच्चा रात को बिस्तर में पेशाब कर देता है । बिना कृमियों के भी पेशाब की समस्या को यह ठीक कर देती है ।


" अंगों में कम्पन्न और ऐंठन "


कृमि की वजह से सोते समय बच्चे के अंगो में कम्पन्न और ऐंठन होती हैं । सिना के प्रयोग से कृमि मरते नहीं , लेकिन शरीर का ' धातु - क्रम ' बदल जाने से कृमियों का उत्पन्न होना रुक जाता हैं ।  


● गिंडोये - जैसे कृमि - बच्चो के पेट में तीन प्रकार के कृमि पाए जाते हैं,  चिलूणे, गिंडोये और गोल कृमि व टेप जैसे लम्बे कृमि । इनमें से गिंडोये जैसे कृमि के लिए सिना का प्रयोग किया जाता हैं ।


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Thursday, September 22, 2022

क्लेमैटिस इरैक्टा ( CLEMATIS ERECTA) के लक्षण, रोग और फायदे

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 क्लेमैटिस इरैक्टा ( CLEMATIS ERECTA) के लक्षण, रोग और फायदों का विस्तृत विश्लेषण :-


" प्रमेह रोग व लक्षण का विवरण "


क्लेमैटिस इरैक्टा प्रमेह ( सुजाक ) की उत्कृष्ट औषधि हैं । सोरा धातु के रोगी के लिए यह उत्तम दवा हैं । इस दवा का काम ' तन्तुओं ' में प्रविष्ट होकर उनका शोथ करना है । यह औषधि प्रमेह ( गोनोरिया ) के उन रोगियों के लिए हितकारी होती है, जिनका रोग ऐलोपैथी के इलाज से ठीक न होकर लम्बा चल रहा हो । जब प्रमेह में मूत्रनली का शोथ बढ़ता चला जाए, और मूत्रनली फोड़े की तरह कड़ी हो जाए, दबाने से दर्द हो और नली का छेद बन्द हो जाए, तब इस दवा के प्रयोग से बन्द छिद्र आश्चर्यजनक रूप में खुल जाता हैं । और बन्द या सूक गए प्रमेह का स्राव फिर से शुरू हो जाता हैं । यह दवा दो से तीन महीने इस्तेमाल करने से प्रमेह रोग पूरी तरह ठीक हो जाता हैं । 


" मूत्राशय पूरा खाली न हो पाना "


प्रमेह रोग से जब मूत्रनली संकुचित हो जाती है, तब मूत्राशय से पूरा पेशाब नही निकल पाता । रोगी को पेशाब करने के बाद भी लगता हैं, कि थोड़ा बाकी रह गया है । संकुचन के कारण पेशाब धीरे-धीरे बून्द-बून्द करके निकलता है । मूत्र के प्रारंभ होने और कर चुकने के बाद जलन होती हैं । मूत्रनली से गाढ़ी पस निकलती है । प्रमेह की प्रथम अवस्था में जब शोथ अपने शिखर पर होती है, तब यह दवा नही दी जाती । यह दवा उन रोगियों को दी जाती हैं, जिन्हे लम्बे समय से प्रमेह रोग है । 


" अंडकोश का शोथ " 


प्रमेह के कारण अडकोशों में शोथ हो जाती है । जब प्रमेह को अनुपयुक्त उपचार से दबा दिया जाता है, तब अंडकोश में सूजन और कड़ापन आ जाता है । तब दर्द होता है और दर्द की इस अवस्था को पल्सेटिला से शान्त किया जाता है । और अवरुद्ध हुआ प्रमेह का स्राव जारी हो जाता है । इस दवा में प्राय दायी तरफ के अंडकोश में सूजन होती हैं, और यह दवा दायी ओर ही उत्तम असरकारक होती है । 


" विचित्र एग्जीमा "


क्लेमैटिस इरैक्टा का एग्जीमा विचित्र होता है । अमावस्या के बाद रिसता है, और पूर्णिमा के बाद खुश्क हो जाता है । एग्जीमा में खुजली होती है, और उससे पस निकलती है । ठंडे पानी से धोने से और बिस्तर की गर्मी से रोग में वृद्धि होती है । 


" अकेले में डर और दूसरे के साथ घबराहट "


क्लेमैटिस इरैक्टा दवा का रोगी अकेले में डर महसूस करता हैं, और दूसरो के साथ से घबराहट । यह इस दवा का विचित्र मानसिक लक्षण है । 


" क्लेमैटिस इरैक्टा शक्ति तथा प्रकृति "


मूत्रनली के संकुचन की प्रारंभिक अवस्था में जब मूत्र रुक-रुक कर आ रहा हो और संकुचन पूरी तरह नही हुआ हो, तब उच्च शक्ति का प्रयोग करने से संकुचन नही हो पाता । क्लेमैटिस इरैक्टा शीत प्रकृति की दवा हैं ।


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नागभस्म के उपयोग, शुद्धिकरण और बनाने की विधि

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 नागभस्म के उपयोग, शुद्धिकरण और बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन :-


सीसा दो प्रकार का होता है - कुमार और शुमल । भस्म बनाने के लिए कुमार सीसे का प्रयोग होता हैं।


" सीसा शुद्धिकरण विधि "


>> त्रिफला का काढ़ा, धीक्वार का रस या कण्हेरी के पत्तों का रस लोहे की कढ़ाई में डालकर, उसमें अग्नि में तपा हुआ सीसा सात बार डालने से सीसा शुद्ध होता है और हर बार नया रस इस्तेमाल होता हैं ।


>> तेल, छांछ, गोमूत्र, कांजी या कुल्थी के काढ़े में सीसे का पानी सात बार डालने से सीसा शुद्ध होता है ।


" नागभस्म बनाने की सम्पूर्ण विधि "


>> शुद्ध मनसील को अडूसे के रस में खरल करके इसका शुद्ध किए हुए सीसे के पत्तो पर लेप होता हैं । और फिर तीन बार कुंभपुट देने से सीसे की भस्म तैयार हो जाती हैं ।


>> शुद्ध मनसील को नागरबेल के पत्तों के रस में खरल करके शुद्ध किए हुए सीसे के पत्तों पर लेप होता हैं । इन पत्तो को मिट्टी के सराव में डालकर दूसरे सराव से ढककर मिट्टी में सने  हुए कपड़े में लपेटकर 32 बार लघुपुट दिया जाता हैं । जिससे सीसे की निरुत्थ भस्म बनती है ।


>> शुद्ध मनसील को आंक के रस में डालकर, इसका शुद्ध सीसे के पत्तों पर लेप कर लघुपुट दिया जाता हैं । और जब तक भस्म न बन जाए तबतक यह पुट जारी रखी जाती हैं ।


>> ओंगा, कौहा और पीपल की छाल की राख बनाकर, इस राख के समान सीसा ले । लोहे की कढ़ाई में सीसे का पानी बनाकर उसमें थोड़ी-थोड़ी राख डालकर पलाश के डंडे से घोंटा जाता हैं ।  यह प्रक्रिया सात दिन तक करने से सीसे की भस्म बन जाती है । 


" नागभस्म के फायदे "


नागभस्म एक शक्ति वर्धक रसायन है । इसके उपयोग से रसधातु और शुक्र धातु में वृद्धि होती  है ।


" अम्लपित्त में नागभस्म का उपयोग "


आमाशय के बढ़ जाने से अम्लपित्त की समस्या उत्पन्न होती है। सुबह के समय पेट और गले में जलन होती है, प्यास लगती है और उल्टी करने की इच्छा होती हैं। ये सब अम्लपित्त के कारण होता है। यदि अंतःपरिमार्जन करने बाद नागभस्म दी जाए तो तुरन्त फायदा होता हैं । 


नागभस्म आमाशय के संकुचन में मदद करती है। आमाशय के वरण और उसके कारण उत्पन्न अम्लपित्त में नागभस्म अच्छा फायदा करती है। यदि रोग पुराना हो और रोगी अशक्त और दुबला-पतला हो तो नागभस्म उत्तम औषधि हैं । 


" गंडमाला में नागभस्म का उपयोग "


गंडमाला एक प्राकृतिक विकार है, इस विकार में कभी-कभी शरीर की सभी धातुए क्षीण हो जाती हैं । और शरीर केवल हड्डी और चमड़ी का ढांचा रह जाता है । इस अवस्था में सबसे उत्तम इलाज सिर्फ नागभस्म ही है । नागभस्म के उपयोग से कुछ ही दिनों में ग्रंथियो की कठोरता कम हो जाती है और शरीर में धातुओं निर्माण होने लगता है । 


" प्राकृतिक वात विकार में नागभस्म का उपयोग "


प्राकृतिक रोग शरीर को बहुत दिनों तक तकलीफ देते रहते हैं । कुछ दिन कम होते है और कुछ दिन बाद फिर बढ़ जाते हैं । कुछ प्राकृतिक विकार तो बिलकुल खत्म लगते है, लेकिन थोड़ा सा कुपथ्य होते ही फिर बढ़ जाते है । जैसे मधुमेह, गंडमाला, क्षयरोग आदि प्राकृतिक विकारों में नागभस्म देने से फायदा होता है । 


" मधुमेह में नागभस्म का उपयोग "


मधुमेह विकार शरीर, दोष और धातुओं की विकृति से उत्पन्न होता है । आयुर्वेद के अनुसार मधुमेह में तीन दोष, शुक्र, मेद, मांस, रक्त, अप्धातु, ओज, वसा, लसीका, मज्जा, रसधातु इत्यादि सभी विकृत होते है । और उनकी एक-दूसरे पर निर्भरता के कारण मधुमेह उत्पन्न होता है । 


मधुमेह के रोगी स्थूल और कृश दो प्रकार के होते है । स्थूल प्रकार के रोगी में मेद धातु की विकृति पाई जाती है। इनका शरीर हष्ट-पुष्ट होने पर भी ताकत की कमी होती है । इस प्रकार के रोगी को नागभस्म से फायदा होता हैं । कृश प्रकार का रोगी हो और साथ ही पेट में जलन हो तो जसदभस्म से फायदा होता हैं ।


" कोष्टशूल में नागभस्म का उपयोग "


इस प्रकार के कोष्टशूल में आंतो में शिथिलता होती हैं, और वातप्रधान या वातपित्तप्रधान विकृति रहती है । जिससे आंते ठीक तरह से काम नही करती, कभी-कभी उल्टी होती हैं । नाग भस्म देने से यह विकार दूर हो जाता है ।


" बद्धकोष्ट में नागभस्म का उपयोग "


बद्धकोष्ट ( कब्जियत ) पेट ठीक तरह से साफ नही हो पाता । पेट साफ न होने की समस्या आंतो की अशक्तता के कारण होता हैं । बद्धकोष्ट में नागभस्म उत्तम औषधि हैं ।


" अस्थि विकार में नागभस्म का उपयोग "


हड्डियों के अस्थिगत व्रण में नागभस्म दी जाती है । अस्थिधातु की वृद्धी के लिए जिन द्रव्यों की जरूरत होती है, उन्हे आंतों से लेकर अस्थिधातु तक पहुंचाने का कार्य नाग भस्म करती है । ये द्रव्य पार्थिव या निरिन्द्रिय घटकों से तैयार होते है । 


दोषों की दुष्टि, अस्थि और मज्जा धातुओं में होती हैं, तो हड्डियाँ क्षीण और मुलायम हो जाती हैं । हड्डियों में सूजन और कठिणता आ जाती है । हाथ-पैरों के जोडों के पास अस्थि बढ़ जाती है, जिससे तीव्र शूल होता है । बुखार, उल्टी और बेचैनी के लक्षण रहते है । यह विकार कभी-कभी गर्भिणी को और कभी कभी प्रसव के बाद भी तकलीफ देता है । आयुर्वेद के अनुसार यह अस्थिमज्जागत वातप्रकोप है । इसमे नागभस्म को आमला, गोखरू और मिश्री के चूर्ण के साथ देने से तुरन्त फायदा होता है । 


" बवासीर में नागभस्म का उपयोग "


इस प्रकार के बवासीर में गुदा के किनारे में सूजन रहती है और अंदरूनी भाग बाहर निकला रहता हैं । मस्से बिलकुल मुलायम होते है, और खून आने की तकलीफ नही रहती । लेट्रीन कृत्रिम तरीके से कराना पड़ता है । इस प्रकार की अशक्तता मे नागभस्म दी जाती हैं । इस तरह की अशक्तता अधिक शुक्रपात करने से भी हो जाती है । 


" पित्तज गुल्म में नागभस्म का उपयोग "


पित्तज गुल्म में ताकद बढाने के लिए नागभस्म का प्रयोग किया जाता है । पित्तजगुल्म की प्रारंभिक अवस्था में नागभस्म देने से इसका बढ़ना बंद हो जाता है और वही अवस्था लगातार बनी रहती है । पित्तजगुल्म का उपचार रोग को पुराना होने पर करना चाहिए, तभी उचित इलाज हो पाता हैं ।


" ग्रहणी व अतिसार विकार में उपयोग "


ग्रहणी व अतिसार विकार को ठीक करने के लिए शरीर में ताकत नहीं रहती है । इस कारण रोग लम्बा बना रहता है और शरीर अधिक क्षीण होता रहता है । इस विकार में ज्वर न हो तो नागभस्म से फायदा मिलता हैं ।


" नपुंसकता में नागभस्म का उपयोग "


मधुमेह के कारण उत्पन्न नपुंसकता में नागभस्म फायदेमंद होती हैं । अंडकोशो की ग्रंथियो की अशक्तता के कारण उत्पन्न नपुंसकत्व में नागभस्म के साथ सिलाजीत, सुवर्णभस्म देने से अच्छा लाभ मिलता हैं । 


" पांडुरोग में नागभस्म का उपयोग "


धातु परिपुष्ट क्रिया में कमी आने कारण सर्व इंद्रियों और हृदय में अशक्तता होने लगती हैं, जिससे पाण्डुरोग का उपद्रव होने लगता हैं, तो अभ्रक भस्म या लोहभस्म के साथ नागभस्म देने से फायदा होता हैं ।


" पक्षाघात में नागभस्म का प्रयोग "


पुराने पक्षाघात ( लकवा ) के विकार में, विशेषतया शाखाश्रित सिरा, स्नायु या कण्डरा की अशक्तता हो और हाथ पैरों में विशेषतया अंगुलियों मे कुछ भी उठाने की शक्ती न हो तो नागभस्म से फायदा मिलता हैं । 


" खांसी में नागभस्म का उपयोग " 


हृदय की अशक्तता के कारण या फेफडों की अशक्तता के कारण एक प्रकार की खांसी होती है । इसमें बडी तकलीफ होती है और खांसी करते वक्त आवाज निकलती हैं । कफ बिलकुल भी नही होता लेकिन खांसी बराबर चलती रहती है । इस अवस्था में नागभस्म से आराम मिलता हैं ।


" मांसार्बुद विकार में नागभस्म का उपयोग "


मांसार्बुद ( कैंसर ) विकार में नागभस्म का प्रयोग करने से,  विशेषतया वातप्रधान रोग हो और शूल अधिक हो तो नागभस्म देने से कुछ आराम मिलता हैं ।


" नागभस्म के प्रयोग पर सावधानी "


नागभस्म के उपयोग से कभी-कभी कोष्टशूल पैदा हो सकता है 


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Saturday, July 30, 2022

त्रिवंग भस्म एक बाजीकरण योग और इसके फायदे और उपयोग

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त्रिवंग भस्म क्या हैं - त्रिवंग भस्म रांगा, सीसा और जसद तीनों को अलग-अलग शुद्ध करके सम मात्रा में मिश्रित करके बनाई जाती हैं । 


" त्रिवंग भस्म बनाने की सम्पूर्ण विधि "


इस मिश्रण में पीसी हुई हल्दी डालकर अच्छी तरह मिलाया जाता हैं । इससे गर्द पीले रंग की भस्म तैयार होती है । इसके बाद हल्दी के काढ़े और घीक्वार के रस में चौदह-चौदह बार भावना दी जाती हैं । और हर भावना के बाद तबतक अग्निपुट दी जाती हैं, जबतक भस्म निरुत्थ न हो जाए । अच्छी तरह बनी हुई त्रिवंगभस्म का रंग गर्द पीला होता है ।


" त्रिवंग भस्म के फायदे व उपयोग "


त्रिवंगभस्म शक्तिदायक औषधि हैं, जो नपुंसकता को दूर करती है और सिरागत वात विकारो को ठीक करती हैं ।


" त्रिवंग भस्म का मेह विकार में उपयोग "


मेह के विभिन्न प्रकार जैसे इक्षुमेह, हरिद्रामेह और लालामेह में त्रिवंगभस्म से अच्छे परिणाम मिलते हैं ।  बार-बार पेशाब करने की इच्छा और पेशाब की मात्रा बढ़ जाने जैसे विकारो में कुछ दिनों तक त्रिवंगभस्म का सेवन करने से अच्छा फायदा होता हैं । इसका असर मुख्यता पेशाब की उत्पत्ति पर होता है । मधुमेह में भी इससे कुछ हद तक फायदा मिलता हैं । 


" त्रिवंग भस्म उत्तम बाजीकरण योग "


त्रिवंगभस्म एक उत्तम बाजीकरण योग हैं, जो जननेंद्रिय को ताकत देती हैं, और नपुंसकता को दूर करती हैं । अतिवीर्यपात, बहुत अधिक स्त्रीसंग, बार-बार स्वप्नदोष होना, इन कारणों से जननेन्द्रिय शिथिल हो जाती है और नपुंसकता उत्पन्न होती है । इस विकार में त्रिवंगभस्म बहुत लाभदायक होती है ।


" वीर्य वृद्धि में त्रिवंगभस्म का उपयोग "


त्रिवंगभस्म से वीर्य की वृद्धि होती है और जननेंद्रिय की स्नायु की शिथिलता को नष्ट कर शक्ति प्रदान करती है । नपुंसकता न होने पर भी जिनको स्वप्नदोष होता है या बिना किसी कारण वीर्यस्त्राव होता हैं, तो भी त्रिवंगभस्म फायदेमंद होती है । 


" नपुंसकता में  त्रिवंगभस्म का उपयोग "


जननेंद्रिय में उत्तेजना तो ठीक रहती है, परंतु स्त्री के पास जाने से ही वह नष्ट हो जाती है, घबराहट और चिंता भी रहती है । इस प्रकार की नपुंसकता में त्रिवंगभस्म के सेवन से फायदा होता हैं ।


" त्रिवंगभस्म का बांझपन में उपयोग "


यदि गर्भाशय या योनिमार्ग में किसी रुकावट के कारण बांझपन उत्पन्न हुआ हो तो इस प्रकार के बांझपन को छोड़कर यदि अंडकोष की अशक्तता या संकुचन, फलवाहिनीयों की अशक्तता या संकुचन, इन इन्द्रियों का पूर्ण विकास न होने से बांझपन उत्पन्न हुआ हो तो त्रिवंग भस्म से फायदा होता हैं । 


" गर्भाशय व शारीरिक कमज़ोरी में त्रिवंगभस्म का उपयोग "


त्रिवंगभस्म के प्रयोग से स्त्रियों की आंतरिक इन्द्रियों को शक्ति मिलती है । बार-बार गर्भधारण से, या गर्भपात की आदत होने से स्त्रियों की आंतरिक इंद्रियों में अशक्तता आ जाती है, और इसी अशक्तता से बाह्य इन्द्रियों पर असर पड़ता है, जिससे शरीर में कमजोरी हो जाती है । 


कभी-कभी स्त्रियों को कम उम्र में ही स्त्रित्व प्राप्त हो जाता है ।  या कम उम्र में अधिक संभोग के कारण अंतरिन्द्रियों को धका लगता है । जिससे कमज़ोरी आती है और गर्भधारण नही होता या गर्भधारण हो जाए तो भी वह पूर्ण नही होता और गर्भपात हो जाता है । यदि पूरे दिन भी हो गए हो, तो भी बच्चा बिलकुल दुबला-पतला पैदा होता है । इन विकारो में  त्रिवंगभस्म उत्तम उपचार हैं ।


" सफेद पानी के विकार में त्रिवंगभस्म का उपयोग "


अत्यंत कामवासना या बार-बार संभोग के कारण स्त्रियों की जननेंद्रिय से सफेद और चिकना स्राव होने लगता है । यह स्त्राव कभी-कभी इतनी अधिक मात्रा में होता है कि उस स्त्री को बड़ी तकलीफ होती है । कभी-कभी यह स्राव केवल संभोग के विचार से ही या दूसरे जीवो के संभोग को देखकर या ऐसी बाते सुनकर या स्मरण मात्र से ही हो जाता है । यह स्त्राव त्रिवंगभस्म के सेवन से ठीक हो जाता है । 


" स्नायु व सिरागत वायु विकार में उपयोग "


स्नायु और सिरागत वायु विकार से वातवाहिनियों में दर्द उत्पन्न होता है । नसों में सकुंचन और पीड़ा होती है और वे स्पर्श में कठिन होती है । इनमें शक्ति कम होने के कारण व्यक्ति अपने हाथ-पैर नही उठा पाता और उसे बड़ी तकलीफ का सामना करना पड़ता है । नसों की अशक्तता और नसों का कार्य अधिक होने से हाथ-पैर टेढ़े हो जाते है और हाथ-पैरों मे कंपन्न भी होता है । इन विकारो में भी त्रिवंगभस्म से उत्तम लाभ मिलता हैं ।

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Friday, July 22, 2022

ताम्रभस्म भस्म के उपयोग, फायदे, शुद्धिकरण व बनाने की विधि

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ताम्र कितने प्रकार की होती है - ताम्र दो प्रकार की होती है - नेपाल और म्लेंच्छ, भस्म के लिए नेपाल ताम्र को श्रेष्ठ माना गया हैं । 


" ताम्र शुद्धिकरण विधि "


ताम्र को निम्न प्रकारो से शुद्ध किया जाता हैं ।


>> गोमूत्र, नींबू का रस और सुहागे के साथ ताम्र के पतले पतले पत्रो को एक पहर तक पकाकर शुद्ध किया जाता है ।


>> ताम्र के पतले-पतले पत्रो को गोमूत्र में उबलाकर शुद्ध किया जाता है । 


>> ताम्र के पत्रो को नींबू के रस के साथ सैंधानोन से लेप कर, आग में तपाकर बुझा दे, यह प्रक्रिया सात बार दोहराने से ताम्र शुद्ध हो जाता है ।


>> ताम्र के पत्रो को नींबू का रस के साथ सेंधानोन से लेप करके आग में तपाकर निर्गुंडी के रस में आठ दफा बुझाने से ताम्र शुद्ध होता है । 


>> ताम्र के पत्रो को थूहर का रस, आक का रस और नमक से लेप करके आग में तपाकर निर्गुंडी के रस में तीन बार बुझाने से ताम्र शुद्ध होता है ।


" ताम्रभस्म बनाने के प्रकार व विधि " 


>> पारा और गंधक की कज्जली बनाकर उसको नींबू के रस में घोंट कर, इसका शुद्ध किए हुए ताम्र पत्रो पर लेप किया जाता हैं । फिर उसको मिट्टी के शराव में डालकर दूसरे शराव से ढककर उसपर गीली मिट्टी में लिपटा हुआ कपड़ा लपेटकर सुखाया जाता हैं । फिर अग्नि में तीन बार गजपुट देकर भस्म बनाई जाती है ।


>> ताम्र के वजन के बराबर पारा, इतना ही गंधक, ताम्र का आधा हरताल और ताम्र का एक चौथाई मनसील लेकर कज्जली तैयार की जाती हैं । इसमें से थोड़ा सा गर्भयंत्र में डालकर उस पर ताम्र के शुद्ध किए हुए टुकडे रखे जाते हैं, फिर उस पर कज्जली डाली जाती है और फिर टुकड़े और फिर कज्जली। इस तरह जब सभी ताम्र पत्र रख दिए जाए, तब इसको एक पहर तक पकाकर ठंडा करके भस्म बना ली जाती हैं।


>> एक भाग गंधक और एक भाग शुद्ध ताम्र लेकर, मिट्टी के कटोरे में आधा गंधक डालकर उसपर शुद्ध ताम्र के टुकड़े डाले, फिर उसपर आधा गंधक, फिर दूसरे कटोरे से ढक दिया जाता है, फिर मिट्टी से लिपटा हुआ कपड़ा लपेटकर तीन पहर तक गजपुट से आंच दी जाती हैं । और ठंडा होने पर उसकी भस्म बना ली जाती हैं। 


अच्छी तरह से बने हुए ताम्रभस्म का रंग मयूरकण्ठ जैसा नीला होता है ।


" ताम्रभस्म के फायदे, उपयोग व गुणधर्म "


ताम्रभस्म का प्रमुख उपयोग शरीर की विभिन्न ग्रंथियों की सूजन या उनके बढ़ जाने पर उनके आकार को कम करने के लिए किया जाता हैं । कफप्रधान या कफवातप्रधान दोषदुष्टी में ताम्रभस्म फायदेमंद होती हैं ।


" ताम्रभस्म का यकृत विकार में उपयोग "


ताम्रभस्म सर्व प्रथम यकृत में जाती है, और फिर पूरे शरीर में फैलती है। इसलिए सबसे पहले यकृत और पित्ताशय पर असर करती है । पित्ताशय का संकुचन हो गया हो या पित्त स्राव गाढ़ा हो गया हो या पित्ताशय विकार से पेट में दर्द हो तो इस तरह के पेट दर्द में ताम्रभस्म से फायदा होता हैं । और इससे यकृत पित्त का स्राव नियमित हो जाता है ।


" उदर विकारों में ताम्रभस्म का उपयोग " 


बढ़े हुए प्लीहा को कम करने के लिए ताम्रभस्म का उपयोग किया जाता हैं । गुल्म और अष्ठीला विकारों में ग्रंथियों का क्षरण करने के लिए ताम्रभस्म का उपयोग किया जाता है । गुल्म के विकार में ताम्रभस्म के साथ कुमारी आसव दी जाती हैं । आमाशय की कर्कटग्रंथि ताम्रभस्म से कम हो जाती हैं ।


" हैजे में ताम्र भस्म का उपयोग "


हैजे में जब अधिक दस्त आते हैं, और हाथ-पैरो में ऐंठन होती है । यह ऐंठन ताम्रभस्म से कम हो जाती है । इस हालत में ताम्रभस्म का कम मात्रा में और बार-बार प्रयोग किया जाता हैं । ऐंठन तो कम होगी, साथ ही वमन, शूल और भ्रम भी कम होते हैं । 


" अम्लपित्त में ताम्रभस्म से फायदा "

इस प्रकार के अम्लपित्त में उल्टी कम होती है, लेकिन पित्त के कारण जलन अधिक होती है , चक्कर आते हैं और पेट में तीव्र शूल होता है । इन लक्षणों को कम करने के लिए ताम्रभस्म दी जाती है । इससे पित्त शरीर से बाहर निकल जाता है । 


" कोष्ठद्रवशूल में ताम्र भस्म का उपयोग "


अष्ठीला ग्रंथि के बढ़ जाने के कारण कोष्ठद्रवशूल या दूसरे कोष्टशूल उत्पन्न हो जाए तो ताम्रभस्म दी जाती हैं । यह कठिन से कठिन कोष्टशूल को भी धीरे धीरे कम कर देती है । अष्ठीला के साथ यदि कफज गुल्म बढ़ गया हो तो भी ताम्रभस्म उसे ठीक कर देती हैं ।


" पांडुरोग में ताम्रभस्म का उपयोग "


पांडुरोग से कभी-कभी प्लीहा या यकृत बढ़ जाते है । चमड़ी का रंग हल्का पीला पड़ जाता है,और चमड़ी पर स्निग्धता और सुफेदसा रंग रहता है । पूरे शरीर पर थोड़ी-थोड़ी सूजन रहती है । इसका कारण भी प्लीहा या यकृत् का विकार हो सकता है । इसमे भी यदि पित्त की क्षीणता और कफ की वृद्धि हो तो ताम्रभस्म दी जाती हैं । 


" प्रमेह विकार में ताम्रभस्म का उपयोग "


यदि मांस खाने वाले व्यक्ति को प्रमेह विकार हो तो दूसरी औषधियों की अपेक्षा ताम्रभस्म अधिक फायदेमंद होती हैं । ताम्रभस्म से जो पित्त उत्पन्न होता है, उससे मांस का पचन आसानी से हो जाता है, इसी कारण वह प्रमेह के विकार में फायदा करती है ।


" ग्रहणी विकार में ताम्रभस्म का उपयोग "


ग्रहणी विकार में पित्त की उत्पत्ति कम होती है, और वह तीक्ष्णता में भी कम होती है । इस अवस्था में मल बिलकुल सफेद, बाजरे के आटे जैसा, चिकना और बदबूदार होता है । जी मिचलाता है और कभी-कभी उल्टी भी हो जाती है, यह उल्टी भी सफेद, चिकनी और दुर्गंधयुक्त होती है । इन लक्षणों में ताम्रभस्म से फायदा होता हैं । 


" ताम्रभस्म के गुणधर्म "


ताम्रभस्म कड़क, तीक्ष्ण, उष्ण, भेदन करने वाली, पित्त का स्राव बढ़ाने वाली है और बहुत उत्तेजक होती हैं ।


" ताम्रभस्म के नुकसान "

 

>> ताम्रभस्म उत्तेजक होने के कारण इसका प्रयोग सावधानीपूर्वक किया जाता हैं ।


>> ताम्रभस्म के उपयोग से गर्भवती महिला, सूतिका महिला, बाल अवस्था, वृद्ध अवस्था, क्षतक्षीण, क्षय रोगी और बवासीर के रोगी को बचना चाहिए। 


>> ताम्रभस्म के उपयोग से अतिसार की सम्भावना भी रहती है ।


>> ताम्रभस्म के प्रयोग से नाक और गले से रक्तस्राव हो सकता है ।


>> मूत्रपिंड के विकार के कारण जलोदर हुआ हो तो ताम्रभस्म से मूत्रपिंड की सूजन बढ़ जाती है, और पेशाब कम आने लगता है ।



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Wednesday, July 13, 2022

जसदभस्म या पुष्पांजन भस्म के उपयोग और भस्म तैयार करने की विधि

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" जसदभस्म या पुष्पांजन भस्म के उपयोग और भस्म तैयार करने की विधि "


जसदभस्म कितने प्रकार की होती हैं - जसदभस्म दो प्रकार की होती हैं - एक जसद और दूसरा शवक ।


" जसद को शुद्ध करने की विधि " 


जसद को चार प्रकार से शुद्ध किया जा सकता हैं , जैसे -


>> जसद को पानी में गरम करके, इस पानी को दूध में इक्कीस बार डालने से जसद शुद्ध होती है । 


>> जसद को गरम करके तेल, छांछ, गोमूत्र, कांजी और कुल्थी के काढे में सात बार डालकर जसद को शुद्ध किया जाता है ।


>> जसद को गरम करके विजोरा के रस में सात बार डालकर शुद्ध की जाती है । 


>> इंसान का मूत्र, घोड़े का मूत्र, छांछ या कांजी में जसद का पानी डालने से जसद शुद्ध होती है । 


" जसद भस्म तैयार करने की विधि " 


जसदभस्म को तीन प्रकार से तैयार किया जाता हैं । 


>> जसद के वजन का एक- चौथाई हिस्सा शुद्ध पारा और शुद्ध गंधक लेकर उन दोनों को पहले घीक्वार के रस में और फिर नींबू के रस में खरल करके, इससे जसद के छोटे छोटे टुकड़ो पर लेप करे और शराव संपुट में डालकर गजपुट देने से जसद भस्म तैयार होती हैं ।


>> जसद के टुकड़े करके एक प्रहर तक अफीम या हींग के पानी में भिगोए । उसके बाद जसद को लोहे की कढ़ाई में गरम करे,  जब पिघल जाए तब लोहे के चम्मच से दो घंटे तक चलाए । और इस तरह जसदभस्म बन जाती हैं । 


>> जसद को गरम करने के बाद जब वह पिघल जाए,  तब उसमें मालकांगनी का पंचांग ( पत्ते , फूल , फल , मूल और छाल ) डालकर लोहे के चम्मच से अच्छी तरह चलाए । इससे पीले रंग की जसदभस्म बनती हैं । 


इन तीनों विधि से तैयार की गई भस्म को सेन्द्रियत्व प्राप्त कराने के लिए इसे नींबू के रस में, हल्दीके काढ़े में और घीक्वार के रस में, प्रत्येक में चौदह बार भावना दी जाती हैं । और हर भावना के बाद अग्निपुट दी जाती हैं । और अग्निपुट के बाद अच्छी तरह खरल में मर्दन की जाती हैं ।


" जसदभस्म का परिक्षण "


जसदभस्म अच्छी बनी हैं या नहीं इसके परीक्षण के लिए इसमें नींबू का रस डालने पर उसमे किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं होती है और उसके रंग में किसी प्रकार का बदलाव नही होता है, तो यह अच्छी भस्म है। जसदभस्म अच्छी तरह खरल हुई हैं या नहीं यह जानने के लिए भस्म पानी में डाले, यदि वह पानी पर तैरता हैं, तो अच्छी भस्म है । 


" जसदभस्म के फायदे और उपयोग "


जसदभस्म शीतल होती है, और कफपित्त नाशक व आँखों  लिए लाभप्रद होती है । यह मधुमेह, पांडुरोग, श्वास जैसे विकारों को जल्दी ठीक कर देती है । सर्वांग ज्वर में जब शरीर में जलन हो और क्षय की प्रारंभिक अवस्था में जब हल्का ज्वर हो तो जसदभस्म उसे कम कर देती है । 


रसवाहिनी और रसवहपिंड के विकारों में जसदभस्म उत्कृष्ट औषधि है । गलारोग, गंडमाला, अपच और आंतों की सूजन में भी जसदभस्म फायदेमंद होती है ।


नाड़ीव्रण, भगंदर, दुप्टव्रण जैसे विकारों में भी जसदभस्म औषधि फायदेमंद होती हैं ।


" आंत्र विकार व अतिसार में जसदभस्म का उपयोग "


आंतो की सूजन से एक तरह का अतिसार ( दस्त ) होता है । इसमें उल्टी, पेट में तीव्र दर्द और रोगी क्षीण हो जाता है । आंत्रशोथ ज्वर में जीभ पर बड़े-बड़े छाले हो जाते है और कभी-कभी जीभ की अंतस्त्वचा बाहर निकल जाती है । इसे जसदभस्म ठीक कर देती हैं। 


" गले के विकार में जसदभस्म का उपयोग "


गले में गांठ की सूजन यदि  वह पुरानी हो या अन्य पुराने कंठ रोग हो  इनमें जसदभस्म उत्तम उपचार है । 


वलय, वृंद, बलाश इन विकारो में यदि जसदभस्म से फायदा न हो, तो भी स्वरघ्न, विदारिका, गिलायु, अधिजिव्ह, उपजिव्ह आदि विकार कम हो जाते है । यदि ये विकार उपदंश रोग के कारण हो तो जसदभस्म नही दी जाती । यदि क्षयजन्य, कफजन्य या रसवह पिंड के बिगड़ने से हुए हो तो जसदभस्म से ठीक हो जाते हैं ।


" नेत्र विकार में जसदभस्म का उपयोग "


आधा तोला शतधोतघृत या गाय का ताजा मक्खन और एक रत्ती जसदभस्म को अच्छी तरह खरल करके उसका अंजन बनाकर इसे दिन में दो से तीन बार आंख में डालने से कनीनी के पास के और पलको के अंदर के वर्ण ठीक हो जाते है । और पोथकी, अभिष्यंद, वर्त्म, शुंडिका जैसे नेत्र विकार भी ठीक हो जाते है । 


" जसदभस्म का क्षय विकार में उपयोग "


क्षयरोग की एक विशिष्ट अवस्था में भी जसदभस्म से फायदा होता है । रोगी को लगता है कि फेफड़ो का कुछ भाग नष्ट हो गया हैं । क्षयरोग विषार पूरे शरीर मे फैल जाता है और खून बिगड़ जाता है । जिससे तीव्र ज्वर उत्पन्न होता है, सुबह पसीना आता है, और बिलकुल भी ताकत नही रहती । इस अवस्था में जसदभस्म के साथ शिलाजीत देने से क्षयरोग का विषार बनना बंद हो जाता है, इससे रोगी को आराम मिल जाता है ।


" प्रमेह विकार में जसदभस्म का उपयोग "


पूरे शरीर में ताप का अंदेशा हो, हाथ-पैरों और शरीर में जलन हो, बाहर से शरीर ठंडा हो , प्यास बहुत लगती है लेकिन थोड़ा ही पानी पी पाता हो, मानो शरीर में गरम सूइयाॅ चुभ रही हो, जीभ में कड़वाहट और सूखी हो, गले मे गांठ जैसा दर्द हो, किसी काम में मन नही लगता  हो, शुगर लेवल कम होने से थकावट हो, सिर में चक्कर आना, स्मृतिनाश, सोचने की शक्ति कमी , ये सभी लक्षण पित्तजन्य प्रमेह विकार के होते हैं और पित्तजन्य प्रमेह छ प्रकार के होते है : - क्षार, नील, काल, पीत ( हारिद्र ), रक्त और विस्त्र ( मांजिष्ट ), इन सभी प्रकार के प्रमेह में जसदभस्म उत्तम फायदेमंद होती हैं ।


" मधुमेह विकार में जसदभस्म का उपयोग "


प्रमेह विकार का  इलाज यदि समय पर नही हुआ तो यह मधुमेह के उत्पन्न का कारण बन सकता है। जब शरीर में इन्शूलिन हार्मोन की कमी होने लगती तो रक्त में शुगर की मात्रा बढ़ जाती है और उसका पचन नही हो पाता । जसदभस्म मधुमेह में भी अच्छा काम करती हैं ।


" जसदभस्म का पांडुरोग में उपयोग "


पांडुरोग में हाथ-पैरों की जलन और रसवाहिनियों का विकार हो तो पित्तदोष को जसदभस्म दूर करने में मदद करती हैं । 


" श्वास रोग में जसदभस्म का उपयोग "


यदि गले की गांठ और पेट की गांठ होने से श्वास की बीमारी बढ़ गयी हो, और श्वास और इस गांठ में कोई संबंध हो तो जसदभस्म से फायदा होता हैं । 


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